Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


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रानी जाह्नवी ज्यों-ज्यों विवाह की तैयारियाँ करती थीं और संस्कारों की तिथि समीप आती जाती थी, सोफिया का हृदय एक अज्ञात भय,एक अव्यक्त शंका, एक अनिष्ट चिंता से आच्छन्न होता जाता था। भय यह था कि कदाचित् विवाह के पश्चात् हमारा दाम्पत्य जीवन सुखमय न हो, हम दोनों को एक दूसरे के चरित्र-दोष ज्ञात हों, और हमारा जीवन दु:खमय हो जाए। विनय की दृष्टि में सोफी निर्विकार, निर्दोष, दिव्य,सर्वगुण-सम्पन्ना देवी थी। सोफी को विनय पर इतना विश्वास न था। उसके तात्तिवक विवेचन ने उसे मानव-चरित्र की विषमताओं से अवगत कर दिया था। उसने बड़े-बड़े महात्माओं, ऋषियों, मुनियों, विद्वानों, योगियों और ज्ञानियों को, जो अपनी घोर तपस्याओं से वासनाओं का दमन कर चुके थे, संसार के चिकने, पर काई से ढँके हुए तल पर फिसलते देखा था। वह जानती थी कि यद्यपि संयमशील पुरुष बड़ी मुश्किल से फिसलते हैं, मगर जब एक बार फिसल गए, तो किसी तरह नहीं सँभल सकते, उनकी क्ुं+ठित वासनाएँ, उनकी पिंजर-बध्द इच्छाएँ, उनकी संयत प्रवृत्तिायाँ बड़े प्रबल वेग से प्रतिकूल दिशा की ओर चलती हैं। भूमि पर चलनेवाला मनुष्य गिरकर फिर उठ सकता है, लेकिन आकाश में भ्रमण करनेवाला मनुष्य गिरे, तो उसे कौन रोकेगा, उसके लिए कोई आशा नहीं, कोई उपाय नहीं। सोफिया को भय होता था कि कहीं मुझे भी यही अप्रिय अनुभव न हो, कहीं वही स्थिति मेरे गले में न पड़ जाए। सम्भव है, मुझमें कोई ऐसा दोष निकल आए, जो मुझे विनय की दृष्टि में गिरा दे, वह मेरा अनादर करने लगें। यह शंका सबसे प्रबल, सबसे निराशामय थी। आह! तब मेरी क्या दशा होगी! संसार में ऐसे कितने दम्पत्तिा हैं कि अगर उन्हें दूसरी बार चुनाव का अधिकार मिल जाए, तो अपने पहले चुनाव पर संतुष्ट रहें?

सोफी निरंतर इन्हीं आशंकाओं में डूबी रहती थी। विनय बार-बार उसके पास आते, उससे बातें करना चाहते, पाँड़ेपुर की स्थिति के विषय में उससे सलाह लेना चाहते, पर उसकी उदासीनता देखकर उन्हें कुछ कहने की इच्छा न होती।
चिंता रोग का मूल है। सोफी इतनी चिंताग्रस्त रहती कि दिन-दिन-भर कमरे से न निकलती, भोजन भी बहुत सूक्ष्म करती, कभी-कभी निराहार ही रह जाती। हृदय में एक दीपक-सा जलता रहता था, पर किससे अपने मन की कहे? विनय से इस विषय में एक शब्द भी न कह सकती थी। जानती थी कि इसका परिणाम भयंकर होगा। नैराश्य की दशा में विनय न जाने क्या कर बैठें। अंत को उसकी कोमल प्रकृति इस मर्मदाह को सहन न कर सकी। पहले सिर में दर्द रहने लगा, धीरे-धीरे ज्वर का प्रकोप हो गया।
लेकिन रोग-शय्या पर गिरते ही सोफी को विनय से एक क्षण अलग रहना भी दुस्सह प्रतीत होने लगा। निर्बल मनुष्य को अपनी लकड़ी से भी अगाध प्रेम हो जाता है। रुग्णावस्था में हमारा मन स्नेहापेक्षी हो जाता है। सोफिया, जो कई दिन पहले कमरे में विनय के आते ही बिल-सा खोजने लगती थी कि कहीं यह प्रेमालाप न करने लगें, उनके तृषित नेत्रों से, उनकी मधुर मुस्कान से, उनके मृदु हास्य से थर-थर काँपती रहती थी, जैसे कोई रोगी उत्ताम पदार्थों को सामने देखकर डरता हो कि मैं कुपथ्य न कर बैठूँ, अब द्वार की ओर अनिमेष नेत्रों से विनय की बाट जोहा करती थी। वह चाहती कि यह अब कहीं न जाएँ, मेरे पास ही बैठे रहें। विनय भी बहुधा उसके पास ही रहते। पाँड़ेपुर का भार अपने सहकारियों पर छोड़कर सोफिया की सेवा-शुश्रूषा में तत्पर हो गए। उनके बैठने से सोफी का चित्ता बहुत शांत हो जाता था। वह अपने दुर्बल हाथों को विनय की जाँघ पर रख देती और बालोचित आकांक्षा से उनके मुख की ओर ताकती। विनय को कहीं जाते देखती, तो व्यग्र हो जाती और आग्रहपूर्ण नेत्रों से बैठने की याचना करती।
रानी जाह्नवी के व्यवहार में भी अब एक विशेष अंतर दिखाई देता था। स्पष्ट तो न कह सकतीं, पर संकेतों से विनय को पाँड़ेपुर के सत्याग्रह में सम्मिलित होने से रोकती थीं। इंद्रदत्ता की हत्या ने उन्हें बहुत सशंक कर दिया था। उन्हें भय था कि उस हत्याकांड का अंतिम दृश्य उससे कहीं भयंकर होगा। और, सबसे बड़ी बात तो यह थी कि विवाह का निश्चय होते ही विनय का सदुत्साह भी क्षीण होने लगा था। सोफिया के पास बैठकर उससे सांत्वनाप्रद बातें करना और उसकी अनुरागपूर्ण बातें सुनना उन्हें अब बहुत अच्छा लगता था। सोफिया की गुप्त याचना ने प्रेमोद्गार को और भी प्रबल कर दिया। हम पहले मनुष्य हों, पीछे देशसेवक। देशानुराग के लिए हम अपने मानवीय भावों की अवहेलना नहीं कर सकते। यह अस्वाभाविक है। निज पुत्र की मृत्यु का शोक जाति पर पड़नेवाली विपत्तिा से कहीं अधिक होता है। निज शोक मर्मांतक होता है, जाति शोक निराशाजनक; निज शोक पर हम रोते हैं, जाति शोक पर चिंतित हो जाते हैं।
एक दिन प्रात:काल विनय डॉक्टर के यहाँ से दवा लेकर लौटे थे (सद्वैद्यों के होते हुए भी उनका विश्वास पाश्चात्य चिकित्सा ही पर अधिक था) कि कुँवर साहब ने उन्हें बुला भेजा। विनय इधर महीनों से उनसे मिलने न गए थे। परस्पर मनोमालिन्य-सा हो गया था। विनय ने सोफी को दवा पिलाई और तब कुँवर साहब से मिलने गए। वह अपने कमरे में टहल रहे थे, इन्हें देखकर बोले-तुम तो अब कभी आते ही नहीं?
विनय ने उदासीन भाव से कहा-अवकाश नहीं मिलता। आपने कभी याद भी तो नहीं किया। मेरे आने से कदाचित् आपका समय नष्ट होता है।
कुँवर साहब ने इस व्यंग की परवा न करके कहा-आज मुझे तुमसे एक महान् संकट में राय लेनी है, सावधान होकर बैठ जाओ, इतनी जल्दी छुट्टी न होगी।
विनय-फरमाइए, मैं सुन रहा हूँ।
कुँवर साहब ने घोर असमंजस के भाव से कहा-गवर्नमेंट का आदेश है कि तुम्हारा नाम रियासत से...
यह कहते-कहते कुँवर साहब रो पड़े। जरा देर में करुणा का उद्वेग कम हुआ, बोले-मेरी तुमसे विनीत याचना है कि तुम स्पष्ट रूप से अपने को सेवक-दल से पृथक कर लो और समाचार-पत्रों में इसी आशय की एक विज्ञप्ति प्रकाशित कर दो। तुमसे यह याचना करते हुए मुझे कितनी लज्जा और कितना दु:ख हो रहा है, इसका अनुमान तुम्हारे सिवा और कोई नहीं कर सकता, पर परिस्थिति ने मुझे विवश कर दिया है। मैं तुमसे यह कदापि नहीं कहता कि किसी की खुशामद करो, किसी के सामने सिर झुकाओ; नहीं, मुझे स्वयं इससे घृणा थी और है। किंतु अपनी भू-सम्पत्तिा की रक्षा के लिए मेरे अनुरोध को स्वीकार करो। मैंने समझा था, रियासत को सरकार के हाथ में दे देना काफी होगा। किंतु अधिकारी लोग इसे काफी नहीं समझते। ऐसी दशा में मेरे लिए दो ही उपाय है-या तो तुम स्वयं इन आंदोलनों से पृथक् हो जाओ, या कम-से-कम उनमें प्रमुख भाग न लो, या मैं एक प्रतिज्ञा-पत्र द्वारा तुम्हें रियासत से वंचित कर दूँ। भावी संतान के लिए इस सम्पत्तिा का सुरक्षित रहना परमावश्यक है तुम्हारे लिए पहला उपाय जितना कठिन है, उतना ही कठिन मेरे लिए दूसरा उपाय है तुम इस विषय में क्या निश्चय करते हो?
विनय ने गर्वान्वित भाव से कहा-मैं सम्पत्तिा को अपने पाँव की बेड़ी नहीं बनाना चाहता। अगर सम्पत्तिा हमारी है तो उसके लिए किसी शर्त की जरूरत नहीं; अगर दूसरे की है, और आपका अधिकार उसकी कृपा के अधीन है, तो मैं उसे सम्पत्तिा नहीं समझता। सच्ची प्रतिष्ठा और सम्मान के लिए सम्पत्तिा की जरूरत न हीं, उसके लिए त्याग और सेवा काफी है।
भरतसिंह-बेटा, मैं इस समय तुम्हारे सामने सम्पत्तिा की विवेचना नहीं कर रहा हूँ, उसे केवल क्रियात्मक दृष्टि से देखना चाहता हूँ। मैं इसे स्वीकार करता हूँ कि किसी अंश में सम्पत्तिा हमारी वास्तविक स्वाधीनता में बाधक होती है, किंतु इसका उज्ज्वल पक्ष भी तो है-जीविका की चिंताओं से निवृत्तिा और आदर तथा सम्मान का वह स्थान, जिस पर पहुँचने के लिए असाधारण त्याग और सेवा की जरूरत होती है,मगर जो यहाँ बिना किसी परिश्रम से आप-ही-आप मिल जाता है। मैं तुमसे केवल इतना चाहता हूँ कि तुम इस संस्था से प्रत्यक्ष रूप से कोई सम्बंध न रखो, यों अप्रत्यक्ष रूप से उसकी जितनी सहायता करना चाहो, कर सकते हो। बस, अपने को कानून के पंजे से बचाए रहो।
विनय-अर्थात् कोई समाचार-पत्र भी पढ़ूँ, तो छिपकर, किवाड़ बंद करके कि किसी को कानों-कान खबर न हो। जिस काम के लिए परदे की जरूरत है, चाहे उसका उद्देश्य कितना ही पवित्र क्यों न हो, वह अपमानजनक है। अधिक स्पष्ट शब्दों में मैं उसे चोरी कहने में भी कोई आपत्तिा नहीं देखता। यह संशय और शंका से पूर्ण जीवन मनुष्य के सर्वोत्कृष्ट गुणों का -ास कर देता है। मैं वचन और कर्म में इतनी स्वाधीनता अनिवार्य समझता हूँ, जो हमारे आत्मसम्मान की रक्षा करे। इस विषय में मैं अपने विचार इससे स्पष्ट शब्दों में नहीं व्यक्त कर सकता।
कुँवर साहब ने विनय को जलपूर्ण नेत्रों से देखा। उनमें कितनी उद्विग्नता भरी हुई थी! तब बोले-मेरी खातिर से इतना मान जाओ।
विनय-आपके चरणों पर अपने को न्योछावर कर सकता हूँ, पर अपनी आत्मा की स्वाधीनता की हत्या नहीं कर सकता।
विनय यह कहकर जाना ही चाहते थे कि कुँवर साहब ने पूछा तुम्हारे पास रुपये तो बिल्कुल न होंगे?
विनय-मुझे रुपये की फिक्र नहीं।
कुँवर-मेरी खातिर से-यह लेते जाओ।
उन्होंने नोटों का एक पुलिंदा विनय की तरफ बढ़ा दिया। विनय इनकार न कर सके। कुँवर साहब पर उन्हें दया आ रही थी। जब वह नोट लेकर कमरे से चले गए, तो कुँवर साहब क्षोभ और निराशा से व्यथित होकर कुर्सी पर गिर पड़े। संसार उनकी दृष्टि में अंधोरा हो गया।

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